कला की गरिमा
1961 में भारत में वितरित एक स्मारिका का अंश
"कलाकारों को अपनी स्वतंत्रता को आत्मसमर्पित न करते हुए, जनता की सस्ती मांगों के लिए नीचे नहीं झुकना होगा बल्कि अपनी रूचि के मानकों के लिए लोगों की नज़रों को ऊपर उठाना होगा।"
यह प्रबुद्ध कलाकारों द्वारा शैक्षिक और सामाजिक संस्थानों से संपर्क करके किया जा सकता है। पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में लेखों के माध्यम से ऐसे कलाकारों के विचारों का प्रचार-प्रसार किया जा सकता है। नाटकों, फिल्मों और रेडियो वार्ता के माध्यम से लोगों को वास्तविक कला की समझ के लिए शिक्षित किया जा सकता है। इस प्रकार कला की गरिमा को बनाए रखा जा सकता है।
इन समाजों के माध्यम से, बड़े पैमाने पर जनता के संपर्क में आने से, एक कलाकार की सामाजिक छवि एक अति इक्षुक और अधिक संवेदनशील प्राणी के रूप में विकसित होगी। वह राष्ट्र में थोड़ी सी भी अशांति, समाज में मामूली से भी असंतुलन पर प्रतिक्रिया करेगा।
यदि वह सड़क पर एक कोढ़ी को देखता है, तो उसका दिल इतनी सहानुभूति से उसकी ओर आकर्षित होगा कि वह अपनी कला के माध्यम से एक ऐसा वातावरण बना सके जिससे सामाजिक कार्यकर्ता, डॉक्टर, वैज्ञानिक और राज्य के प्रभारी लोग कुष्ठ रोग की समस्या का कुछ समाधान सोचने पर मजबूर हो जाएं।
यदि कोई कलाकार अपने देशवासियों को देशद्रोही या कायर पाता है, तो वह दूसरों के माध्यम से उनके मन में गहरा सम्मान पैदा कर सकता है। ऐसी होती है एक कलाकार की प्रेरक शक्ति।
वे सृष्टि के सबसे प्यारे फूल, सृष्टिकर्ता के सबसे प्यारे सपने और मानव समाज के सबसे प्यारे हिस्से हैं। शायद वे यह नहीं जानते कि उनके दर्शक उन्हें कैसे प्यार करते हैं, पूजते हैं और उनका अनुसरण करते हैं..."